भूमि अधिग्रहण बिल-2015 एक लम्बे संघर्ष का परिणाम है । यद्यपि प्रारंभ में इसे किसान विरोधी व किसानों को विस्थापित करने वाले दमनकारी कानून के रूप में जाना जाता था । लगभग 125 वर्षों के संघर्ष के पश्चात किसानों के सम्मान एवं सुरक्षा के मानक के रूप में यह अधिनियम अपने वर्तमान रूप में आया है । यद्यपि कुझ स्वार्थी लागों द्वारा इसे किसान विरोधी कहा जा रहा है जो असत्य है । इसके वास्तविक स्वरूप और उद्देश्य को जानने के लिए इसके 125 वर्ष के इतिहास को जानना आवश्यक है ।
वष्र 1894 में ब्रिटिश इंडिया सरकार ने एक विधान बनाया जिससे देश के प्राकृतिक संसाधनों पर एवं भूमि पर सरकार का स्वामित्व घोषित कर दिया गया । इसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक हित के नाम पर सरकार द्वारा कोई भी जमीन कभी भी अधिकृत की जा सकती है । देश के आजाद होने के पश्चात भी यह व्यवस्था यथावत चलती रही । प्रारंभ में अधिग्रहित भूमि के बदले मुआवजे की कोई निश्चित राशि तय नहीं की गई थी । बाद में अधिग्रहित भूमि के बदले किसानों को मुआवजे का प्रावधान कर तो दिया गया लेकिन मुआवजे की राशि कितनी हो इसका कोई सिद्धांत तय नहीं था । इसी कारण भाखड़ा नागला, डम व टिहरी बांध जैसी बड़ी परियोजनाओं में मुआवजे के मानम जय न होने के कारण मामले न्यायालय में गये तो विभिन्न न्यायालयों द्वारा अलग-अलग फैसले आये ।
भूमि अधिग्रहण के लिए जैसे कानून में अधिग्रहित भूमि के लिए किसानों से सहमति लेने की कोई व्यवस्था नहीं थी । क्योंकि यह अधिग्रहण लोकहित या जनकल्याण के नाम पर होता था परंतु समस्या यह थी कि लोकहित की काई परिभाषा तय नहीं की गयी थी । इसी कारण जहां अस्पताल, नहर, सड़क, स्कूल, बांध आदि को लोकहित का काम माना था । परंतु औद्योगिक विकास के गलियारों के विकास को लोकहित नहीं माना जाता था । 1991 में आर्थिक सुधार व वैश्विक युग के पश्चात इसमें परिवर्तन हुआ । उदाहरण स्वरूप राजस्थान के सूरतगढ़ में 10,000 एकड़ भूमि में सेना के लिए छावनी क्षेत्र घोषित किया गया ओर सामाजिक दृष्टि से इसे लोकहित का माना गया, उसी प्रकार दिल्ली हवाई अड्डे के निर्माण हेतु 6300 एकड़ भूमि का अधिग्रहण हुआ जो वैश्वीकरण के पश्चात देश के विकासको ध्यान में रखतेहुए लोकहित का माना जाना चाहिए ।
2013 से पहले का अधिग्रहण अधिनियम खासा विवादास्पद रहा क्योंकि उसके तहत भूमि किसानों से भूमि जबरन ली जाती थी । फिर जिन बड़ी परियोजनाओं के लिए भूमि ली जाती, उससे बड़ी संख्या में लोक विस्थापित हो जाते ओर आजादी के बाद से लगभग 6 करोड़ से ज्यादा लोगों को अपने घरों और गांवों से विस्थापित होना पड़ा और इसके बाद उन्हें मामूली मुआवजा मिला । औपनिवेशिक दौरे में ब्रिटिश हुकमरानों ने अपने फायदे के लिए भूमि, वन, खनिज आदि संसाधानों का दोहन करने हेतु भूमि अधिग्रहण कानून का दुरूपयोग किया । आजादी के पश्चात पं. नेहरू के पश्चिमी देशोंसे प्रभावित दृष्टिकोण के कारण सार्वजनिक क्षेत्र को विकास का पर्याय माना गया, परंतु विकास के इस माडल ने विस्थापित गरीबों, किसानों को उनकी भूमि का मामूली सा मुआवजा मिला ।
1990 के बाद विकास के एजेंडों को मूर्त रूप देने में सार्वजनिक क्षेत्र के साथ साथ निजी क्षेत्र का दायित्व भी काफी महत्वपूर्ण हो गया । परंतु इस नव उदारवादी दौर में निजी क्षेत्र के हितों के लिए 1994 के अधिग्रहण काननू धड़ल्ले से इस्तेमाल होने लगा और इसी श्रृंखला में विशेष आर्थिक क्षेत्र की स्थापना के लिए बड़े पैमाने पर भूमि का अधिग्रहण किया गया । किसानों और गरीबों की विस्थापन की समस्या को देखते हुए भूमि अधिग्रहण कानून में परिवर्तन का पहला मसौदा 1999 में माननीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार द्वारा तैयार किया गया जिसमें सभी मंत्रालयों और संगठनों के सुझाव शामिल किए गए और सभी लोगों के हितों का ध्यान रखा गया । इस मसौदे को कैबिनेट से पास करने की सहमति भी बन गई थी परंतु सहयोगियों ने किसानों की सहमति के मुद्दे पर इसका विरोध किया । उन्हें आशंका थी कि किसानों की सहमति के चक्कर में विकास की परियोजनाएं पूरी नहीं हो पाएंगी, अत: मसौदे पर वाजपेयी सरकार को पीछे हटना पड़ा और 1999 के भूमि अधिग्रहण प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया ।
वर्ष 2013 का नया भूमि अधिग्रहण कानून वर्षों के जदोजहद के बाद तैयार हुआ, इसमें अधिग्रहित की जानी वाली भूमि के 80 प्रतिशत भू-स्वामियों की सहमति का कानून बनाया गया । इसमे भू-स्वामियों को अच्छा खासा मुआवजा देने का प्रावधान किया गया । यह सही है कि मुख्य विपक्षी के रूप में भाजपा ने निर्माण में पूरा सहयोग दिया ।
अब प्रश्न यह उठता है कि एनडीए सरकार बनने पर 2013 के कानून में परिवर्तन क्यों करने पड़े ? कांग्रेस सरकार में 1947 से 2012 तक भूमि अधिग्रहण कानून को एक दमनकारी कानून के रूप में इस्तेमाल किया और नए कानून को किसान हितेषी दिखाने के लिए इतना कम्प्लीकेटेड कर दिया कि विकास की किसी योजना के लिए भूमि का अधिग्रहण असंभव हो गया । यूपीए सरकार में वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने डॉ. मनमोहन सिंह को 25 मई, 2012 को लिखे पत्र में कहा कि बिल के मसौदे स्वरूप का निर्माण क्षेत्र औद्योगिकरण तथा देश के शहरीकरण में दीर्घावधि में विपरीत असर पड़ेगा । इसमें जमीन की कीमत बहुत महंगी हो जाएगी और भूमि अधिग्रहण लगभग असंभव हो जाएगा । इसके अतिरिक्त कांग्रेस शासित प्रदेश सरकारों सहित अधिकांश राज्यों में वर्ष 2013 के कानून में बदलाव की मांग की, फिर इसका विरोध क्यों ? वास्तव में इस विरोध के पीछे झूठ और पाखंड ज्यादा है । इसमें किसानों के हित के बजाय राजनीतिक प्रतिशोध अधिक है । आज के आर्थिक परिवेश में विकास के कार्यक्रमों के पीछे ले जाना असंभव है । एन.डी.ए. सरकार के इस अधिनियम के अंतर्गत यूपीए सकरार द्वारा पारित 13 इवनम्पेड एक्ट को इसमें शामिल किया है । अर्थात् यू.पी.ए. सरकार इन एक्ट्स द्वारा विभिन्न विषयों/प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन वगैर किसी मुआवजे के अधिग्रहित कर ली जाती थी, अब सरकार इन प्रोजेक्ट्स की भी नये भूमि अधिग्रहण अधिनियम के परिधि में ला दिया है जिससे गरीब किसानों को उनकी अधिग्रहित जमीन का मुआवजा मिले सके । सरकार ने लोकसभा में सदस्यों की भावनाओं को समाहित करने के लिए विधेयक में 9 संशोधन किये । इनके अनुसार :-
1. भू- अधिग्रहण प्रभावित परिवारों व कृषि श्रमिकों के एक परिजन को नौकरी दी जाएगी ।
2. औद्योगिक कोरिडोर के लिए सड़क या रेल मार्ग के दोनों ओर एक कि.मी. की भूमि का अधिग्रहण होगा, वह भी किसी न किसी सरकारी एजेंसी के हाथों होगा ।
3. सामाजिक ढांचागत परियोजनाओं के लिए सरकार भूमि का अधिग्रहण नहीं करेगी ।
4. निजी स्कूलों ओर अस्पतालों के लिए भी भूमि अधिग्रहण नहीं होगा ।
5. सिर्फ सरकारी संस्थानों, निगमों के लिए जमीन का अधिग्रहण ।
6. मुआवजा एक निर्धारित खाते में ही जमा कराना होगा ।
7. नए कानून के तहत दोषी अफसरों पर अदाली कार्यवाही हो सकेगी ।
8. किसानों को अपने जिले में शिकायत या अपील का अधिकार होगा ।
9. परियोजनाओं के लिए बंजर जमीन का अधिग्रहण होगा ।
मोदी सरकार ने वर्ष 2013 के भू-अधिग्रहण अधिनियम में परिवर्तन किये हैं । वे प्रदेश सरकार के मुख्य मंत्रियों की भावनाओं का सम्मान करते हुए, देश में अपेक्षित विकास के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से किया गया है । वस्तुत: यह विकास हेतु बहुत ही सकारात्मक कदम है । इससे देश के उन युवाओं जिनकी आयु 25 वर्ष से कम है, के लिए कौशल विकास व रोजगार उपलब्ध कराने हेतु डेवलपमेंट सेंटर्स खोलने में मदद मिलेगी ।
सरकार के वर्ष 2022 के विजन में पूरे देश में आवास, शौचालय, विद्यालय, तकनीकी शिक्षा केंद्र खोलने की योजना है । इस अधिनियम के द्वारा सरकार विजन-2022 को पूरा करने हेतु जमीन उपलब्ध करा सकेगी । यह अधिनियम प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की उस विकासवादी सोच का परिणाम है जिससे उन्हें पिछले 15 वर्षों में गुजरात को एक उत्कृष्ट और विकसित राज्य के रूप में विकसित किया है । इस समय उनकी ‘मेक-इन-इंडिया’ की पहल के तहत अनेक औद्योगिक समूह और अनेक मल्टीनेशनल कंपनियां भारत में विनिवेश में रूचि ले रही है, बस आवश्यकता है उनको भूमि सहित अन्य मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराएं व उपयुक्त व सकारात्मक वातावरण बनायें तभी हम विकसित भारत के सपने को मूर्त रूप दे सकेंगे ।
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